तुम गुरू की तरफ पीठ किये खड़े हो, इसीलिसे परमात्मा की ओर, सद्गुरूदेव की ओर उन्मुख नहीं हो पाये, परमात्मा से विमुख हो गये। संसार की तरफ जितनी उन्मुखता होगी, उतनी ही परमात्मा की तरफ, सद्गुरूदेव की तरफ विमुखता होगी, पीठ होगी। मुंह सिर्फ एक ही तरफ हो सकता है या तो संसार की तरफ या सद्गुरूदेव की तरफ, परमात्मा की तरफ। गुरू का अर्थ है, जो तुम्हारी भाषा भली-भांति समझता हो, जो तुम्हारे बीच से ही आया हो। जिसका अतीत तुम्हारे जैसा ही था, लेकिन जिसका वर्तमान भिन्न हो गया है। जो परमात्मा से परिचित हो, जो परमात्मा की भाषा समझता है, वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच अनुवाद का काम कर सकता है।
गुरू एक अनुवादक है, एक ट्रांसलेटर, वह परमात्मा को समझता है, उसकी भाषा को समझता है, वह तुम्हे भी समझता है और तुम्हारी भाषा को भी, वह परमात्मा को तुम्हारी भाषा में लाता है। वह परमात्मा को तुम्हारे अनुकूल करता है, जिसके तेज से तुम अपने सांसारिक जीवन निखार सको, लेकिन तेज इतना बड़ा ना हो कि उसके आघात से तुम मिट जाओ। Hoe werkt het?
छोटे पौधे को तो सुरक्षा की जरूरत होती है। बड़े हो जाने पर किसी बाड़ की कोई जरूरत नहीं रहती। तुम्हारे छोटे से पौधे को सम्भालता है। छोटे से पौधे पर तो मेघ भी बरस जाये, तो मौत हो सकती है। से भी बचाता है। पौधे पर तो सूरज भी ज्यादा पड़ जाये तो मृत्यु हो सकती है। सूरज तो जीवनदायी है, लेकिन छोटे पौधे के लिये जरूरत से ज्यादा होने पर मृत्यु हो सकती है। क्योंकि छोटा पौधा उतना ग्रहण करने को, उतना आत्मसात करने को अभी तैयार नहीं है।
इसीलिये गुरू की यही चेष्टा रहती है, कि वह परमात्मा को तुम्हारे योग्य और तुम्हे परमात्मा के योग्य बना दे, गुरू परमात्मा को थोड़ा रोकता है, थोड़ा ठहरने को कहता है, गुरू परमात्मा से कहता है इतनी जोर से मत बरस जाना कि यह आदमी मिट ik तुम्हे भी गुरू तैयार करता है कि घबराओ मत, थोड़ी प्रतीक्षा करो, जल्दी ही वर्षा होने को है। अगर एक बूंद गिरी है, तो पूरा मेघ भी गिरेगा, घबराओ मत। तुम्हे तैयार करता है, ज्यादा लेने को, परमात्मा को तैयार करता है, कम देने को और जब तुम्हारे दोनों के बीच एक संतुलन बन जाता है तो गुरू का कार्य पूर्ण हो जाता है और यदि तुम गुरू के साथ सम्बन्ध ना जोड़ पाओ, तुम्हारी हालत ऐसी होगी, कि तुम हिन्दी जानते हो, दूसरा आदमी जापानी जानता है, वह जापानी बोलता, तुम हिन्दी बोलते हो, दोनों के बीच कोई ताल-मेल नहीं बनता। एक आदमी चाहिये, जो जापानी और हिन्दी जानता हो, जो ताल-मेल बिठा दे। गुरू की कृपा भी अर्जित करनी होगी। भी मुफ्रत नहीं मिल सकती। मुफ्रत कुछ मिलता ही नहीं और जो लोग मुफ्रत लेने की चेष्टा में होते हैं, वे सदा भिखारी रह जाते हैं, मुफ्रत कुछ भी नहीं मिलता और तुम गुरू को दे क्या सकते हो, तुम्हारे पास है क्या? जो गुरू को दे सको और मुफ्रत में धर्म, सत्य, परमात्मा मिल नहीं सकते। उसकी न्यौछावर तो देनी ही पड़ेगी, इसके लिये तुम्हें अपने आपको पूरा दांव पर लगाना पड़ेगा, तब ही कुछ प्राप्त कर पाओगे।
कहा जाता है- गुरू तो स्वयं करूणा स्वरूप हैं। लेकिन वह करूणा भी तुम पर तब बरस सकती है, जब तुम तैयार हो जाओ, वह करूणा तो सदा ही है गुरू की, लेकिन तुम तो औंधे रखे घड़े हो, तो वह करूणा तुम पर बरसती भी रहे, तो भी तुम भर नहीं पाओगे। जब मुझे लोग शिविरों में सुनने आते हैं, तो मैं यह जानता हूं कि इसमें कुछ तो ऐसे हैं, जो उलटे घड़े की तरह हैं, उनमें कितना भी ज्ञान डालो, उनके भीतर कुछ पहुँच ही नहीं सकता, क्योंकि उनका मुंह ही जमीन पर टिका है ik कुछ हैं, जो फूटे घड़े की तरह हैं- मुंह उनका चाहे सीधा भी डालो, छू भी नहीं पाता कि बाहर निकल जाता है। कुछ हैं, जो डांवाडोल घड़े की तरह हैं, कंपित, चंचल, कुछ पड़ता है, कुछ गिर जाता है, कुछ बचता है, पूरा कभी भी नहीं बचा पाते। कुछ जो सधे हुये, सीधे घड़े की तरह हैं, न तो फूटे है, न उलटे हैं, न चंचल हैं। उनमें जितना डालो, उतना तो सुरक्षित होता ही है, उनके सधे होने के कारण उसमें वृद्धि भी होती है।
तो कृपावान है ही, वह तो सदा कृपा कर ही रहा है, तुम्हारे समझ में ही ना आये तो गुरू कर भी क्या सकता है? तुम्हारे समझने, ना समझने से कृपावान की कृपा में कोई अन्तर नहीं आता। तो बरसती रहेगी, समझ पाओ तो भी ठीक ना समझ पाओं तो भी ठीक! इससे गुरू पर कोई फर्क पड़ता नहीं और ना ही पड़ेगा। तुम गुरू को अश्रद्धा दो, विष दो, कुछ भी अनाप-शनाप दो या करो उससे गुरू पर कोई फर्क पड़ता नहीं। जब तुम में श्रद्धा आ जायेगी, तब तुम कृपा की महत्ता समझ पाओगे, फिर तुम्हें अपने आप में आत्मग्लानि होगी और नेत्रों से नीर बह जायेंगे, तुम रोकने की कोशिश भी करोगे तो भी नहीं रूकेंगे और जिस दिन नीर बहे उस दिन धो लेना अपने सभी दोष और स्वच्छ होकर पहुंच जाना, अपने गुरू के पास, लेकिन स्वच्छ, पवित्र होकर पहुंचना, आते तो तुम अब भी हो, रोते हुये, लेकिन संसार से दुखी होकर रोते हो और फिर उसी संसार में रम जाते हो।
बार तो तुम आओ! श्रद्धा से सराबोर होकर, फिर तुम महसूस कर पाओगे, कि कृपा क्या होती है। तुम्हारा यह जो जीवन चल रहा है, वह कृपा की बदौलत ही चल रहा है। कोई संदेह नहीं है। पर तुम आते हो संदेह लेकर, संदेह में खतरा है, कि पता नहीं!— और सच है, पता तो है ही नहीं। साथ जा रहें हैं, कहीं ले जायेगा कि भटका देगा? जिसका हाथ पकड़ा है, वह हाथ पकड़ने योग्य भी है या नहीं, इसका भरोसा कैसे करें, अनुभव के बिना भरोसा नहीं हो सकता और शास्त्र कहता है, श्रद्धा के बिना अनुभव नहीं हो सकता है। बड़ी असंभव सी क्रिया है बन्धु यह, इसीलिये अधिकतर लोग फेल हो जाते हैं।
जीवन संदेह का शिक्षण है। भर हम संदेह सीखते हैं। अब लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगा है कि संदेह ही एकमात्र आत्मरक्षा का सूत्र है, संदेह तो शास्त्र बन गया है संसार का और व्यक्ति अपने मन की तैयारी संदेह के लिये करता है। विश्वास तो तब करना, जब संदेह की कोई जगह न रह जाये। तभी तुम्हारा और मेरा प्रयास सफल हो सकता है। में रहोगे तो कुछ भी पाना मुश्किल हो जायेगा।
श्रद्धा केवल वे ही लोग कर पाते हैं, जो साहसी होते हैं। जिन्होंने जीवन का सब राग-रंग देख लिया, सारे प्रपंच कर लिये, बेईमानी भी करके देख ली, चोरी भी करके देख ली और पाया कुछ भी नहीं, जीवन मुठ्ठी में भिची हुयी मिट्टी की तरह बना पाये, जो कि हाथ से खिसकती रही। इसी क्षण सोचो कि तुमने -क्या किया अपने जीवन में! चिंतन करना प्रारम्भ कर दो अभी से, तुम्हें स्वयं पता चल जायेगा, कि तुम कहां खड़े हो। भीतर की आँखे खोलो, पहचानो, समझो, छलांग लगा दो गहरे सागर में!
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