हमारे सामने जब-जब कोई नैतिक संकट उपस्थित होता है, तो यही आत्म निर्णय करती है तथा हमारे अन्दर से ही एक विचार आता है कि यह कार्य करें या न करे, यह आन्तरिक प्रेरणा गुरू का कार्य करती है। गुरू स्वरूप में सही मार्गदर्शन का कार्य करती है। का बोध भी यही कराती है तथा अन्त प्रेरणा हमारे लिये मूक शिक्षक की भांति है।
हमारे हृदय में स्थित उस सूक्ष्म यंत्र की भांति है जो प्रति क्षण चैतन्य रहता है तथा इससे सूक्ष्म किरणों का प्रसारण होता रहता है। यह किरणें हमे विचारों के रूप में प्राप्त होती है तथा बिना किसी वाणी के हमें सभी कुछ समझा देती है। यह इतनी सूक्ष्म होती है कि इसको अनसुना करना हमारे लिये बड़ा ही सरल है।
यह केवल चेतना ही प्रदान कर सकती है, विरोध नहीं। भी बुरे कार्य करने वाला व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा की आवाज को दबा कर ही किसी भी बुरे कार्यो में सलंग्न होता है ऐसा नहीं है कि उसे अन्तरात्मा ने आगाह नहीं किया हो यह ईश्वर प्रदत सूक्ष्म यंत्र प्रत्येक को यह चेतावनी देती यह करो यह उचित नहीं होगा और उस बुरे कार्य को करते समय हमारे हाथ-पांव का कंप-कंपाना, शरीर का पसीने-पसीने होना आदि अनेक प्रकार की अनुभूतियों से मनुष्य को आगाह करती रहती है।
परन्तु मनुष्य के सात्विक क्रिया कलापों की कमी तथा पापों के कारण अन्तरात्मा मलिन हो जाती है तथा इसकी ध्वनि मनुष्य के क्रोध, कलहों, दोषों, लोभ-लालच के वशीवर्ती होकर दब जाती है तथा मनुष्य बुरे कर्मो को करने की ओर अग्रसर होता है। अलावा मनुष्य के पवित्र आचरण तथा शुद्ध सात्विक क्रिया कलापों के अपनाने पर यह अधिक चैतन्य होकर बुरे कामों का विरोध प्रकट हमारे अन्तर में कर देती है।
बोलने से भी यह मूक वाणी मन्द पड़ जाती है यहां तक कि समाप्त सी हो जाती है मनुष्य के कुटिलता पूर्ण व्यवहार के कारण भी अन्तरात्मा का नाश हो जाता है। वाणी तथा आचरण में भिन्नता होती है वह कहते कुछ है लेकिन करते कुछ और है।
सभी को अपनी वाणी, अपने विचारों तथा अपने कार्यो का विश्लेषण अवश्य करते रहना चाहिये, वाणी से तुमने आज कुछ झूठ अथवा किसी का दिल तो नहीं दुखाया क्योंकि झूठ बोलने से तुमको कोई लाभ तो नहीं मिलता अपितु अपने व्यवहार में इसकी पड़ है जिससे यह तुम्हारे विचारों में रच-बस जाती है तथा तुम्हारे कार्यो पर इसका प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है तथा दैनिक जीवन में भी तुम्हारे कार्यो में इस के कारण अवरोध आते है कोई तुम पर विश्वास नहीं कर पाता और प्रकार पूरे जीवन भर पीड़ा कष्टों में पड़े रहते है।
अपने स्वार्थवश अन्य के साथ विश्वासघात करते हो, धोखा देते हो लेकिन वास्तविक सत्यता तुम देख नहीं पाते। तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम क्या कर रहे हो लेकिन बुरा करने के पश्चात् तुम्हारी अन्तरात्मा तुम्हें अन्दर ही अन्दर अवश्य कचोटती है, जब तुम अवश्य सोचते हो कि तुमने यह क्या किया तुम शोकाकुल हो जाओगे तथा तुम्हारा मन जायेगा तभी मन को पवित्र बना सकोगे लेकिन तुम्हें अपनी अन्तरात्मा को एक वचन भी देना पड़ेगा कि मैं ऐसा बुरा कार्य कभी नहीं करूँगा।
आज-कल रिश्वत लेना आम बात मानी जाती है तथा इसका दूसरा नाम सुविधा शुल्क लिया जाने लगा है यदि किसी कर्मचारी से पूछे कि आपका वेतन क्या है तो उत्तर मिलेगा कि 15000/-रूपये लेकिन आय 30000/- रूपये है यह अतिरिक्त आय रिश्वत ही है, इस क्रिया-पanning के नियमों को को को को, संस्कारों को तुमने भुला दिया है।।
इन सब कर्मों का दंड तुम्हें अवश्य मिलता है यदि तुम शुद्ध कर्मो से अपनी आत्मा को शुद्ध करोगे तो तुम एक शान्तिप्रद जीवन बिताओगे और आने वाली पीढि़या तुम्हारा अनुसरण करेंगी। प्रदत्त नियम भी यही है। ईमानदारी व सत्य का आचरण अपनाओ। तुम्हें बुरा कार्य करते समय सचेत करती है तथा हृदय में तीव्र वेदना का एहसास होता है यह स्पष्टता अपनी अन्तरात्मा की सूक्ष्म आवाज ही हमें रोकती है कि मित्र ऐसा न करो तुम इसके कारण दुःखी हो जाओगे और जो इसकी सुनकर करता में भी सुख का अनुभव करता है। हमें मित्रवत सचेत ही नहीं करती अपितु एक न्यायाधीश की भांति दंड भी देती है वह सदैव धर्म के अनुसार चलने में प्रेरक का कार्य करती है।
यदि किसी कार्य के पश्चात् तुम्हारा दिल कांपने लगे, तुम्हें शर्म आने लगे, तुम्हारी आत्मा तुम्हें पीडि़त करने लगे तो तुम स्वयं निर्णय कर लेना कि तुमने बुरा कर्म किया है और यदि तुम्हारा मन प्रसन्नता से तथा उल्लास से भर तथा मन में शान्ति व्याप्त हो जाये तो समझ लेना कि तुमने भला कर्म किया है।
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दूसरे मनुष्य को वही कार्य उसकी अन्त प्रेरणा नहीं करने की आज्ञा प्रदान करती है। अपवित्र हृदय की ध्वनि को अन्तप्रेरणा नहीं मानना है जो मन भोग विलास व दुर्व्यसनों की ओर लिप्त होना चाहता है वह अपवित्र मन है तथा वासनाओं से ग्रस्त है, विषय में लिप्त है यह तुम्हें सद्मार्ग से हटाकर अधोगति की ओर अग्रसर करेगा।
सात्विक मन ही दैवीय बल का भण्डार होता है इसमें मनुष्य उच्चता की ओर अग्रसर होता है यह गुरू के समान तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, तुम्हें सात्विक आचरण कर मन को पवित्र रखना चाहिये तथा पवित्र मन से ही अन्तःप्रेरणा लेनी चाहिये एवं नष्ट कर आचरण में लाना चाहिये। तब ही व्यक्ति अपना निर्णय स्वयं कर सकता है, कि वह श्रेष्ठ व्यक्तित्व युक्त है या दुरात्मा।
लिये यदि किसी ने कभी चोरी न की हो और वह कहीं चोरी करने की सोचे तो उसकी अन्तरात्मा अवश्य उसे रोकेगी तो वह उस कर्म को करने से रूक जायेगा लेकिन जो पहले से ही चोरी करता आया है उसकी अन्तरात्मा मर होती अन्तरात्मा की आवाज नहीं सुनेगा तथा चोरी करने में नहीं हिचकेगा। पहली बार किसी बुरे कर्म को करते समय किसी सज्जन व्यक्ति के हाथ लगते है उसे भारी कष्ट अनुभव होने लगता है लेकिन एक बार यदि बुरे कर्म में लिप्त होकर बार वैसे कर्म करने पर उसकी अन्तरात्मा कुण्ठित हो जाती है तब उसे कोई पीड़ा आदि का अनुभव नहीं होता यह आत्मा का अति सूक्ष्म यंत्र है इसकी सूक्ष्मता को बनाये रखने के लिये श्रेष्ठ कर्मो को करते रहना ही इसकी चैतन्यता है।
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सात्विक भोजन से अन्तरात्मा शुद्ध रहती है जबकि अपराधी सदैव उदास, भयभीत, निस्तेज रहा करता है। आचरण युक्त व्यक्ति इस संसार में निडरता से, प्रसन्नता से विचरता है जब कि अपराधी सदैव दुःखी रहता है।
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जिसकी अन्तरात्मा शुद्ध होती है वह सदैव सदैव निरwoord होता है एक शुद्ध पावन चित्त ही ही, आत्मा में ही ईशct जिस प्रकार देह की सुन्दरता के लिये आरोग्य अनिवार्य है उसी प्रकार आत्मा के लिये निike भी अनिवloop भी अनिवार्य है।।।।। उसी उसी अनिव अनिवcentr
तथा ईमानदारी अपनाओं यह परम सुन्दर है मन की पवित्रता बनाये रख कर आन्तरिक सुन्दरता अपनाओं जिससे उस ईश्वर की आवाज को अपनी अन्तरात्मा की आवाज के रूप में हम सुन सकें तथा उस पर चलकर देवमय शक्तियों से युक्त हो सकें तार सके ध्वनि को सुनकर युग पुरूष स्वरूप चेतना की प्राप्ति कर सके।
आपकी माँ
श्रीमाली
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