जीवन में यह चिन्तन नहीं है कि मुझे प्रभु ने क्यों जन्म है, जीवन की क्या गति है? जिसमें यदि धारणा नहीं है, तो उसमें और पशु में कोई अन्तर नहीं है।
का मर्म है गुरूत्व का बोध प्राप्त कर लेना! उसी गुरूत्व का जिसका परिचय गुरूदेव से मिलने के बाद ही बोध हो सकता है, जीवन को परिपूर्णता देने के मार्ग का, सत-असत के व्यर्थ द्वन्द्वों से मुक्त हो उस धर्म को धारण करने का, जो युग धर्म हो और आज का युगधर्म है पौरूष ओज बल और सहास।
आपको आरती करके, भजन गाकर मानसिक सन्तुष्टि मिल सकती है है है, लेकिन आपकी जो मूलभूत आवशcters उनको पूरा करने के लिये आपको आपको स्वयं साधना के मार्ग पर गतिशील होना पडे़गा पडे़गा, उस मार्ग पर गतिशीलर गतिशील होना पड़ेगा पड़ेगा जहां आपको अपने पct
का निरन्तर चिन्तन करने से साधक की बुद्धि गुरू के प्राणों से जुड़कर पवित्र हो जाती है। गुरू का ब्रह्ममय स्वरूप प्रकट होकर शिष्य का कल्याण करता है।
गुरू जीवन का सर्वस्व है, पूर्णत्व का आधार है, श्रेष्ठता का प्रतिरूप है, आकाश से भी अनन्त और पृथ्वी से भी विशाल उनकी महिमा है और जिसके जीवन में गुरू स्थापित हो जाते है, जिसके रक्त के कण में गुरू की प्रतिस्थापना हो जाती है, उसका जीवन भी धन्य हो जाता है, उसे जीवन में पूर्णता और सफलता प्राप्त हो जाती है।
शिष्य को गुरू के हाथ, गुरू के पैर, गुरू के नेत्र, गुरू का मस्तिष्क कहा गया है क्योंकि गुरू अपने आप में कोई साकार बिम्ब नहीं है, निराकार को एक मूर्ति का आकार दिया गया है ये सारे शिष्य मिलकर के एक गुरूत्वमय बनते हैं, आकार बनाते हैं।
तो अपने आप में एक तपस्या है, किसी का इंतजार है, अपने आप में पूर्ण साधना है। किसी को याद करना, किसी के चिंतन में डूबे रहना, अपने आप में ईश्वर की साधना है।
गुरू चेतना का एक पुंज है, चेतना का एक स्रोत है, चेतना का एक सागर है। जब शिष्य निरन्तर सम्पर्क में रहते हैं तो धीरे-धीरे वही चेतना अपने में भी व्याप्त होने लग जाती है। जुड़कर आपका भी जीवन सुगन्धित और दिव्य हो जाता है।
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