प्राचीन काल से अब तक दीक्षा और साधनाओं का आश्रय लेकर अनेकों—या यों कहें, कि सभी कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न होते रहे हैं- हो भी रहे हैं। और साधनाओं के अनुसंधान कर्ताओं ने कुछ ऐसी साधनाओं का अनुसंधान किया, जो कि व्यक्ति के दैनिकचर्या के संकट और सभी परेशानियों का सहज निदान बन सकें। इस प्रकार की साधनाओं में बटुक भैरव की दीक्षा और साधना श्रेष्ठतम साधना मानी गई है, जिसका फल तत्क्षण मिलता है।
शास्त्रों में भी बटुक भैरव की महिमा वर्णित हैं- ब्रह्म रूप, पर ब्रह्म रूप, पूर्ण रूप, निष्कल रूप में- वांगमनसागोचर, विश्वातीत, स्वप्रकाश, पूर्णाहंभाव एवं सकल रूप में- क्षोभण, मन्यु, तत्पुरूष आदि। इस दीक्षा से साधक के अंदर तेजस्विता उत्पन्न होती है, जिसके कारण यदि उसके शत्रु हैं, तो वो उसके सामने आते ही कांतिहीन हो जाते हैं और शक्तिहीन होकर साधक के सम्मुख खड़े नहीं रह पाते हैं। इस दीक्षा से पूर्ण पौरूषवान होकर समस्त समस्याओं को अपने साधनात्मक पुरूषार्थ से हल कर लेता है।
सद्गुरू अपने शिष्य को भयभीत, कायरता, असफलता, उदास, चिंता युक्त नहीं देखना चाहते है। चाहते है कि उनका शिष्य हर परिस्थिति में पूर्ण पौरूषता के साथ बाधाओं को धकेलकर भौतिक और आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो। ऐसा तभी हो सकता है जब शिष्य दैवीय शक्ति को जप, तप आदि के माध्यम से अपने अंदर समाहित करता है। आज कल आत्मबल की कमी, जीवन शैली और परिस्थितियों के वजह से शिष्य पूर्ण रूप से दैवीय शक्ति को पाने में असमर्थ हो रहा है। इसी कारण सद्गुरूदेव अपनी असीम कृपा से स्वयं तपस्या का एक हिस्सा शिष्य को दीक्षा के रूप में प्रदान करते हैं। जिससे साधक, शिष्य रोग, अड़चने, शत्रु रूपी बाधाओं को समाप्त कर सभी कार्यों में सफलता प्राप्त कर पूर्णत्व की ओर अग्रसर हो सकता है।
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