में जिंदगी को दो हिस्सों में बांट दिया। एक को हमने चुन लिया और दूसरे को हमने चुना नहीं और वे दोनों संयुक्त हैं। हमने नहीं चुना वह जायेगा कहां? हमारे साथ रहेगा। हमें डर लगेगा। चाहे हम लोगों के साथ हो, परिवार के साथ हो, दुकान पर हो, बाजार में हो। आपकी भाव-दशा में निर्भर करता है। दुःख-दुःख है, क्योंकि आप दुःख को नहीं चाहते और सुख को चाहते हैं- इसलिये दुःख है। इसलिये है कि उसके विपरीत को चाहते हैं। तो क्या दुःख है? में ही छिपा है दुःख। ? आप शांति को चाहते हैं, इसलिये अशांति है। चुनाव में हमारा संसार है।
जो चुनाव रहित और निर्विकल्प हो जाता है, उसे आत्मा का दर्शन होता है।।।।।।।।।।। क्योंकि जो सुख-दुःख, प्रेम, घृणा, संसार, परमात्मा को बाहर चुनाव नहीं करता, जो बाहर चुनता ही नहीं, जिसके सब चुनाव क्षीण हो जाते हैं, वह तत्काल ही अन्दर पहुँचने की क्रिया प्राप्त कर लेता है।
अपने अन्दर सद्गुण जो अच्छाइयाँ और सद्प्रवृत्तियाँ दिखाई दें, उन्हें निरन्तर विकसित करते रहे। मिले उन पर प्रसन्न होना चाहिये और उन्हें बढ़ाने के प्रयास करने चाहिये। को विकास करने में प्रयत्नशील हों तो निसंदेह ही आप सम्मान प्राप्त करेंगे। गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार किये बिना प्रगति नहीं हो सकती है। दुर्व्यवहार का कुफल दुःख और बैचेनी है, फिर वह चाहे अपने साथ हो या दूसरे के साथ।
जब शरीर की व्यर्थता दिखाई पड़े, शरीर का असर न होना दिखाई पड़े और शरीर केवल एक गंदगी का ढ़ेर मालूम होने लगे और जब शरीर से दूरी बढ़ने लगे- तभी परमात्मा से निकटता होनी शुरू होती है। प्रत्येक इंद्रियों का अलग-अलग काम है और अलग-अलग आयाम है। आंख देखती है, कान सुनते हैं परन्तु कान देख नहीं सकते और आंख सुन नहीं सकती है। हाथ छूते है और नाक गंध-सुगंध देती है। छू नहीं सकता, हाथ गंध नहीं दे सकते। इंद्रिय स्पेशलाइज्ड है, उसका एक विशेष काम है। उसे इन सभी इंद्रियों को एकाग्र करना सीखने की क्रिया ही ध्यान में गहरे जाना है। शरीर के जितने निकट होते हैं परमात्मा से उतने ही दूर होते हैं। लेकिन यदि व्यक्ति शरीर से दूर होने की क्रिया प्रारम्भ करता है तो परमात्मा के उतने ही निकट होने लगता है। शरीर से जितने जोर से हम बंधे हैं, उतने ही उस चैतन्यता से हमारी दूरी है।
जब कोई व्यक्ति अपने शरीर से विमुख होता है तो उसे आत्मा का अनुभव होता है। शब्द को ठीक से समझ लें। जब कोई व्यक्ति अपने शरीर से विमुख होता है तो उसके आंखों में पहली दफे जो झलक आती है, वह अपनी ज्योति की है, आत्मा की है और जब कोई व्यक्ति सारे जगत के ब्रह्माण्ड शरीर से भी विमुक्त हो जाता है , वह ब्रह्म-ज्योति का है। और परमात्मा में इतना ही फर्क है। आत्मा का मतलब है, आपको छोटी सी ज्योति का अनुभव हुआ। परमात्मा का अर्थ है, जब आप महा सूर्य के समक्ष खड़े हो गये। अपने शरीर से छूट कर आत्मा का अनुभव होता है और ब्रह्माण्ड से छूट कर परमात्मा का अनुभव होता है। दोनों में मात्र का ही फर्क है। इसलिये जो आत्मा तक पहुंच गया, उसे कोई अड़चन नहीं है, उसे कोई बाधा नहीं है, वह दूसरी छलांग भी आसानी से ले सकता है।
इस तरह जीता है, शरीर ही उसका सब कुछ हो! देह के साथ रहने का जो व्यक्ति का मन है, वह शरीर के संबंध में हमारी अज्ञानता के कारण ही है। को पता ही नहीं कि शरीर क्या है। यदि शरीर को अन्दर से देखे तो चमड़ी के अन्दर जो हड्ड़ी, मांस, मज्जा, मल, मूत्र छिपा है, यदि पूरा का पूरा दिख जाये, जिससे हमें इतना गहरा राग (प्रेम) बना हुआ है वह समाप्त हो जायेगा और देह की प्राप्ति का मंत्र ज्ञात हो जायेगा। शरीर को केवल दर्पण में देखकर जानता हैं लेकिन दर्पण में जो दिखाई देता है, वह हमारे शरीर का बाह्य आवरण है। व्यक्ति को अपने शरीर की पूरी स्थिति पता चल जायेगी तो व्यक्ति और शरीर के बीच में फासला हो जायेगा, जो जुड़ाव, लगाव बना हआ है वो खत्म हो जायेगा। तब देह की ठीक-ठीक स्थिति मस्तिष्क में आने लगेगी तो देह से दूरी स्वतः ही प्रारम्भ होनी शुरू हो जायेगी। जैसे किसी महल की बाहरी दीवारों को देख ले और समझे की यही महल है, उसी प्रकार व्यक्ति अपने शरीर को भी बाहर से देखता है। बाहर से जो दिखाई देता है, वह ढ़का हुआ, आवृत रूप है शरीर नहीं।
संसार में कोई किसी को उतना परेशान नहीं करता, जितना कि मनुष्य के अपने दुर्गुण और दुर्भावनायें। दुगुर्ण रूपी शत्रु मनुष्य के पीछे लगे रहते हैं, वे हर समय उसे बेचैन रखते हैं। सुखी जीवन की आकांक्षा सभी को होती है, पर सुखी जीवन तभी संभव हो पाता है जब हमारा दृष्टिकोण व विचारों, भावों की त्रुटियों को समझें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। साधन और परिस्थितियों में भी शांति और संतोष को कायम रख सकता है। सद्गुणों के विकास का उचित मार्ग है कि विशेष रूप से विचार किया जाये, आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़े, प्रवचन सुनें, अच्छे शब्दों का प्रयोग करें और अच्छा ही सोंचे साथ ही क्रियान्वित करने की निरन्तरता रखें, जो सद्गुणों को बढ़ाने में सहायक हों।
अशांति हमारा स्वभाव बन गई है और स्वाभाविक है कि शांत होने का एक ही अर्थ है जब गंगा सागर में गिरती है, उन दोनों के बीच जो घटना घटती है, उसका नाम है शांति। आपकी सरिता भी सागर में गिरती है, तब जो घटना घटती है उस मिलन के क्षण में उसका नाम है शांति। हमारी आत्मा में कोई चीज प्रवेश नहीं करती है मन में सब चीजें प्रवेश करती हैं और जब तक हम मन को हटाने की क्रिया सिख नहीं लेते, तब तक ज्ञात नहीं होगा कि सब कुछ आरोपित है। ही ब्रह्म हूं, चैतन्य हूं ये शरीर नहीं। वातावरण के अभावों से ज्ञात यही रहता है कि मैं शरीर हूं, क्योंकि मन में चित्र बना हुआ है कि मैं शरीर हूं। चित्र आत्मा में झलकता है। मन में काम, क्रोध, मोह, लोभ सब है और सारे चित्र भीतर झलकते है और इतने अनंत काल से झलकते आ रहे थे, कि स्वाभाविक है यह भ्रांति हो जाने कि वह झलक नहीं है, मेरा स्वभाव है।
रहे, शरीर तो आपका हर जन्म में मिट जाता है। ? मन नहीं मिटता, मन आपका एक जन्म से दूसरे जन्म में चला जाता है। जब आप मरते हैं तो शरीर छूटता है, मन नहीं छूटता। तो तब छूटता है, जब आप मुक्त होते हैं। समाधि में ही सामर्थ्य है मन को भी मिटा देने का। इसलिये जो जानते हैं, उन्होंने समाधि को महामृत्यु कहा है। क्योंकि मृत्यु में केवल शरीर मरता है और समाधि में शरीर और मन दोनों मर जाते हैं और शेष रह जाता है केवल वही जो मर ही नहीं सकता, जो अमृत है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं हो सकती।
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